यह उम्र गुज़र रही थी उसे मिलने की आस में।
काशी में भी ढूँढा, घूमा कैलाश में।
राम की गलियों में, कभी कृष्ण के रास में।
न बाग़ों के गुलाब में, न जंगल के पलाश में,
यह ख़ुशबू पुण्डरीक की थी मेरे दिल के पास में।
अमृत का यह दरिया मेरे अंदर ही बह रहा था।
दर-दर क्यों गया था? सिर्फ़ पानी की की प्यास में?
न पासे की फेंक में, न तारों, न ताश में।
मेरी क़िस्मत की है चाबी मेरे इसी विश्वास में,
कि राह भी हूँ मैं और रहगुज़र भी मैं,
मंज़िल भी मैं, फिर क्यूँ फिरूँ उदास-हताश मैं?
रस्ता जो अब मिला है, इच्छा है काश में
कोई न अब कहे कि हूँ निराश मैं!
सबको शामिल कर सकूँ क़ुदरत के राज़ में,
कि ख़ुशबू पुण्डरीक की है सबके ही पास में।
कि ख़ुशबू पुण्डरीक की है
हम सबके पास में।
बेतुकबंदी ९/९/१९९९